कुवि के हिन्दी विभाग द्वारा जनजाति गौरव दिवस पर विचार-गोष्ठी आयोजित
कुरुक्षेत्र । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कला एवं भाषा संकाय के अधिष्ठाता प्रो. ब्रजेश साहनी ने कहा है कि वस्तुओं और विचारों को नया आकार कैसे देना है यह समझ हमें मूल निवासियों और आदिवासियों का साहित्य देता है। मूल निवासी साहित्य में लेखक पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता है। दैनिक जीवन में प्रकृति का दोहन हो रहा है जो आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या है इसका समाधान हम आदिवासियों के जीवन से सीख सकते है। वे मंगलवार को कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित जनजाति गौरव दिवस पर विचार-गोष्ठी में बतौर मुख्यातिथि बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2022 में देश में दूसरी बार जनजाति गौरव दिवस 15 नवंबर को मनाया जा रहा है। यह दिवस आदिवासियों के भगवान कहे जाने वाले बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है। बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और छोटा नागपुर पठार क्षेत्र के मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। संथाल, तामार, कोल, भील, खासी और मिज़ो जैसे आदिवासी समुदायों ने कई आंदोलनों के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर भाग लेकर अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी।
उन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक झारखंड और बिहार के आदिवासी क्षेत्र में एक भारतीय जनजातीय आंदोलन का नेतृत्व किया।
उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के बारे में जब हम चर्चा करते है तो हमें असभ्य प्रतीत होने वाले, कंद मूल खाने वाले और शरीर पर छाल लपेटे हुए व्यक्ति की तस्वीर को आदिवासी समझते है और हम सभ्यता के नाम पर अपने आपको सुसंस्कृत मानव समझते है लेकिन इसके उलट आदिवासी समाज प्रकृति का संरक्षण कर रहा है और हम प्रकृति का दोहन कर रहे है।
आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानव बीमारियों से गिरा हुआ है और बड़े-बड़े वैज्ञानिक हमें प्रकृति के नजदीक जाने को बोल रहे है लेकिन जो प्रकृति के नजदीक है उन्हें हम विकास के नाम पर विस्थापित कर रहे हैं। जब किसी समाज में विस्थापन होता है उसके साथ विस्थापित होती है उनकी भाषा, संस्कृति और सभ्यता का भी विस्थापन हो जाता है।
कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में देस हरियाणा पत्रिका के संपादक व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. सुभाष चन्द्र ने कहा की पूरी दुनियां में शोषण, अत्याचार, विस्थापन की त्रासदी की विरासत साझी है और हमारे पालन पोषण, हमारे पूर्वग्रहों और हमारे परिवेश से हमारी धारणा बनती है अगर हम उनको न तोड़े तो वह हमारे विकास में बाधक बनती है।
आज मनुष्य सुन्दर वस्त्र पहनकर अपने आपको सभ्य मानते है और विकास के क्रम में सबसे अग्रिम मानते है लेकिन यह देखने की आवश्यकता है कि जो समस्या सभ्य समाजों में है क्या वह समस्या आदिवासी कहे जाने वाले समाज में भी है जैसे दहेज की समस्या, भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता आदि। आज हर वर्ष वन महोत्सव मनाया जाता है करोड़ों पेड़ लगाए जाते है और अगले वर्ष फिर पेड़ लगाए जाते है असल में पेड़ लगाने की जरूरत नहीं है बल्कि पेड़ों को बचाने की जरूरत है। डॉ. सुभाष चन्द्र ने बिरसा मुंडा, तिलका मांझी आदि के माध्यम से आदिवासियों के इतिहास और जीवन के संघर्ष के बारे में बताया।

Author: Jarnail
Jarnail Singh 9138203233 editor.gajabharyananews@gmail.com