–डॉ उमेश प्रताप वत्स
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पंद्रहवीं शताब्दी के महान संत, समरसता के संदेशवाहक ,समाज सुधारक ,आध्यात्मिकता के शिखर एवं भक्तिकाल के महान कवि संत शिरोमणि रविदास जी की जयंती को माघ महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इसे रैदास जयंती नाम से भी जाना जाता है। रविदास्सिया समुदाय के अनुयायी इस दिन को वार्षिक उत्सव के रूप में मनाते हैं। वाराणसी में इनके जन्म स्थान जिसे ‘श्री गुरु रविदास जनम अस्थान’ के नाम से जाना जाता है, वहाँ विशेष कार्यक्रम आयोजित होते हैं। जहाँ देशभर से लाखों की संख्या में रविदास जी के भक्त पहुँचते हैं। इस बार रविदास जयंती 5 फरवरी को मनाई जा रही है जो उनका 643 वाँ जन्म दिवस होगा। यह जयंती खासकर गुरु संत रविदास के जन्मोत्सव को मनाने के लिए लिए मनाई जाती है। रविदास जयंती हर वर्ष हिंदी महीनों के अनुसार माघ शुक्ल, माघी पूर्णिमा को आती है। संत रविदास जी को कभी संत शिरोमणि, कभी आध्यात्मिक गुरु और कभी-कभी रैदास, रायदास और रुहिदास भी कहा जाता है।
गुरु रविदास एक महान संत के साथ-साथ वैश्विक बंधुता, सहिष्णुता, आपस में प्यार व देशप्रेम का पाठ भी पढ़ाते थे।

इस दिन सिखों में रामदासिया समुदाय द्वारा जगह जगह नगर कीर्तन का आयोजन किया जाता है। मंदिर, गुरुद्वारों में रविदास जी के दोहे ,भजन बजाये जाते है। रविदास जी द्वारा लिखे गए पद,भजन एवं अन्य रचनाओं को सिख शास्त्र ‘गुरु गोविन्द ग्रन्थ साहिब’ में शामिल किया गया है। पांचवें सिख गुरु ‘अर्जुन देव’ ने इसे सिखों के इस पवित्र ग्रन्थ में शामिल किया था। गुरु रविदास जी की शिक्षाओं के अनुयायियों को ‘रविदास्सिया’ और उनके उपदेशों के संग्रह को ‘रविदास्सिया पंथ’ कहते है। गुरु रविदास जी की सच्चाई, मानवता, भगवान् के प्रति प्रेम, सद्भावना देख, दिन पे दिन उनके अनुयाई बढ़ते गये।
रविदास जी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त थे। वे जाति-पाति के नाम पर कोई भेद नहीं मानते थे तभी वे स्वयं को ब्राह्मण से कम नहीं आँकते थे इसलिए वे तिलक ,जनेऊ धारण कर राम भक्ति में लीन रहते जो कि रविदास जी की जाति समाज को पसंद नहीं था। अतः उनकी जाति वाले भी उन्हें आगे बढ़ने से रोकते थे। शुद्र लोग रविदास जी को ब्रह्मण की तरह तिलक लगाने, कपड़े एवं जनेऊ पहनने से नाराज थे। गुरु रविदास जी इन सभी बात का खंडन करते थे और कहते थे सभी इन्सान को धरती पर समान अधिकार है, वो अपनी मर्जी जो चाहे कर सकता है। उन्होंने हर वो चीज जो नीची जाति के लिए निषेध थी, करना शुरू कर दिया जैसे जनेऊ, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि। जो लोग धर्म को अपनी बपौती मानते थे वे उनकी इन गतिविधियों के विरुद्ध थे। उन लोगों ने वहां के राजा से रविदास जी की शिकायत कर दी। रविदास जी इन सभी लोगों को बड़े प्रेम व विनम्रता से इसका जबाब देते थे। उन्होंने राजा के सामने कहा कि शुद्र का रक्त भी लाल है, एकसा दिल है, समान शरीर है तो उन्हें भी अन्य की तरह समान अधिकार होने चाहिए। माना जाता है कि रविदास जी ने भरी सभा में सबके सामने अपनी छाती को चीर दिया और चार युग सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की तरह, चार युग के लिए क्रमश: सोना, चांदी, तांबा और कपास से जनेऊ बना दिया। राजा सहित वहां उपस्थित सभी लोग बहुत हैरान हुए। अपने व्यवहार पर लज्जित होते हुए रविदास जी के पैर पकड़ लिये और उन्हें सम्मानित किया। राजा ने भी संत रविदास जी से क्षमा माँगी, उन्होंने सभी को क्षमा कर दिया और कहा जनेऊ पहनने से किसी को भगवान नहीं मिल जाते। विरोध करने वालों को वास्तविकता दर्शाने के लिए ही रविदास जी को यह चमत्कार करना पड़ा।
रविदास जी भगवान राम के विभिन्न स्वरुप राम, रघुनाथ, राजा राम चन्द्र, कृष्ण, गोविन्द आदि के नामों का प्रयोग अपनी भावनाओं को उजागर करने के लिये करने लगे और उनके महान अनुयायी बन गये।
उनके दोहों में प्रसिद्ध दोहा है –
ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मन सोय॥
अर्थात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं अपितु जो ब्रह्म का ज्ञान रखता है वही ब्राह्मण है। रविदास जी सही में ब्राह्मण थे ।

गुरु रविदास जी के भक्ति गीतों में सिक्ख साहित्य, गुरु ग्रन्थ साहिब शामिल है। पञ्च वाणी की दादूपंथी परंपरा में भी गुरु रविदास जी की बहुत सी कविताएं शामिल है। गुरु रविदास ने समाज से भेदभाव और जाति प्रथा और लिंग भेद को हटाने का बहुत प्रयत्न किया। उनके अनुसार हर एक समाज में सामाजिक स्वतंत्रता का होना बहुत आवश्यक है।
गुरु रविदास ने गुरु नानक देव की प्रार्थना पर पुरानी मनुलिपि को दान करने का निर्णय लिया। उनकी कविताओ का संग्रह श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में देखा जा सकता है। बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने इसका संकलन किया था, जो सिक्खो के पाँचवे गुरु थे। सिक्खो की धार्मिक पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरु रविदास के 41 छन्दों का समावेश है।

रविदास जी की महानता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राजस्थान में मेवाड़ के राजा राणा रत्नसिंह के घर 1498 में जन्मी मीरा जो कि बाल्यावस्था से ही भगवान कृष्ण के प्रेम में पागल होकर लोगों को कृष्ण भक्ति से परिचित कराने वाली महान कवयित्री मीराबाई भी आगे चलकर रविदास जी को ही अपना गुरू बनाती है।
वास्तव में मीरा अपने दादा राव दूदा जी के पास रहती थी, इनके दादा जी बहुत ही धार्मिक एवं लोकप्रिय व्यक्ति थे उनके अन्दर सज्जनता का गुण विद्यमान था और इन्हीं सब कारणों से मीराबाई को भी उन्हीं से भक्ति के संस्कार विरासत में मिले। मीराबाई का विवाह चितौड़ के महाराजा राणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज के साथ हुआ, विवाह के कुछ ही वर्षों के बाद इनके पति की मृत्यु हो गयी, जिससे इनका सम्पूर्ण समय अब कृष्ण भक्ति में व्यतीत होने लगा मीरा श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थी जिसकी वजह से वे हमेशा कृष्ण के पद गाती, साधु-संतो के साथ उनकी हर लीलाओं का वर्णन करती रहती थी।

रविदास जी को मीरा के दादा राव दूदा भी मानते थे ,इधर सुसराल पक्ष में इनके श्वसुर महाराणा सांगा भी संतों-महात्माओं का बहुत सत्कार करते थे। जिस कारण संत रविदास भी अक्सर चितौड़ में राजमहल में आते रहते। मीरा की भक्ति देखकर संत रविदास जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मीरा को ज्ञान दिया। तभी से मीराबाई ने उन्हें अपना गुरू धारण किया।
यहाँ समझने वाली बात यह है कि मुगलों के सत्ता में आने के बाद भी तब सामाजिक असमानता इतनी नहीं थी जितना बखान किया जाता है। धर्म को अपनी बपौती मानने वाले कुछ पंडे लोग जाति-पाति का भेद करते थे जबकि मेवाड़ के राजा राव दादू व चित्तौड़ के राजा महाराणा सांगा जैसे लोग सच्चे संतों का सम्मान करते थे।
आज भी चित्तौड़गढ़ जिले में मीरा के मंदिर के सामने एक छोटी छत्री है जिसमें हमें रविदास जी के पदचिह्न दिखाई देते है। संत मीराबाई और संत रविदास दोनों ही भक्तिभाव से जुड़े हुए संत-कवी थे।
मीरा का एक बहुत ही प्रसिद्ध पद है –
पायो जी म्हैं तो राम रतम धन पायो।
माना जाता है कि मीरा एक पंक्ति
“हरि तुम हरो जन की पीर” को गाते- गाते द्वारिका में कृष्ण की मूर्ति से लिपटकर उसी में विलीन हो गयी।
जो सशरीर परलोक गमन कर गई ,ऐसी महान भक्त का गुरू होने का गौरव भी रविदास जी को प्राप्त है।
रविदास जी कहते थे –
हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।
रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥

संत रविदास जी लोगों को सन्देश देते थे कि ‘भगवान् ने इंसान को बनाया है, न की इंसान ने भगवान् को’ अर्थात् प्रत्येक इंसान भगवान द्वारा बनाया गया है और सबको धरती में समान अधिकार है। संत गुरु रविदास जी सार्वभौमिक भाईचारे ,समरसता और सहिष्णुता के बारे में लोगों को विभिन्न शिक्षायें दिया करते थे।
रविदास जयंती मनाने का उद्देश्य यही है कि गुरु रविदास जी की शिक्षा को याद किया जा सके, उनके द्वारा दी गई भाईचारे, शांति की सीख को दुनिया वाले एक बार फिर अपना सकें।
यह नहीं कि युवा बच्चें दारू पीकर शोभायात्रा के नाम पर डीजे बजाकर बदहवास डांस करें ।आते-जाते राहगीरों से बदतमीजी करें ,बेवजह बहस करें। अपितु इस युग के महान संत के गुणों के अनुरूप कीर्तन-भजन के माध्यम से उनकी जीवन को दिशा देने वाली शिक्षा को घर-घर पहुंचाया जाये तभी संत शिरोमणि गुरु रविदास जी की जयतीं मनाने का सही उद्देश्य चरितार्थ होगा।
आज भी सन्त रविदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सत् व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण संत रविदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
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लेखक-कवि / स्तंभकार :
डॉ उमेश प्रताप वत्स
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Author: Jarnail
Jarnail Singh 9138203233 editor.gajabharyananews@gmail.com