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August 28, 2025 7:39 AM

न्याय की देरी: व्यवस्था पर सवाल

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“सीबीआई जांच भी इंसाफ़ की गारंटी नहीं, सालों से पेंडिंग हैं मामले”

पुरातन की शिक्षिकाओं मनीषा हत्याकांड की जांच के लिए पूछताछ के लिए भेजा गया है। लेकिन प्रदेश में पहले से ही कई मामले यह सवाल करते हैं कि क्या पूछताछ से न्याय मिलेगा? 1995 का 30 साल पुराना मर्डर केस, 2013 का पूर्व जज की पत्नी मर्डर केस 12 साल का कोर्ट में मर्डर, 2017 का स्टूडेंट मर्डर और 2022 का सोनाली केस भी अब तक अधर में हैं। न्याय में ऐसे पीड़ित परिवार को तोड़ दिया जाता है और समाज के विश्वास को खत्म कर दिया जाता है। अब फास्ट ट्रैक कोर्ट में प्रवेश, समय सीमा तय जांच और आधार संरचना प्रक्रिया की।

हरियाणा के भिवानी की शिक्षिका मनीषा की हत्या ने न केवल एक परिवार को तोड़ दिया है, बल्कि समाज को भी झकझोर कर रख दिया है। यह घटना फिर से उस गहरे सवाल को सामने लाती है जो वर्षों से हमारे न्याय तंत्र पर मंडराता आ रहा है—क्या हमारे देश में समय पर न्याय मिल पाना संभव है?

मनीषा का मामला अब सीबीआई के पास भेजने की प्रक्रिया में है। पुलिस ने मुख्यालय को पत्र लिख दिया है और उम्मीद जगाई जा रही है कि सीबीआई जांच से सच्चाई सामने आएगी। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होगा? क्या यह मान लेना चाहिए कि सीबीआई जांच ही न्याय की गारंटी है? अतीत के कई मामलों को देखें तो जवाब निराशाजनक मिलता है। हरियाणा और आसपास के जिलों के कई ऐसे बड़े केस हैं जिन्हें सालों पहले सीबीआई को सौंपा गया, लेकिन आज भी वे न्याय की मंज़िल तक नहीं पहुंचे। 1995 में 11वीं कक्षा की छात्रा की हत्या हुई थी, आरोपी 30 साल से फरार है। यह केवल पीड़िता के परिवार की पीड़ा नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक व्यवस्था पर सवाल है। 2013 में पूर्व जज द्वारा पत्नी की हत्या का मामला पिछले 12 साल से कोर्ट में लंबित है। आरोपी को 2016 में गिरफ्तार किया गया, लेकिन ट्रायल आज भी अधूरा है। 2017 में छात्र की हत्या के मामले में सीबीआई ने स्कूल के ही छात्र को आरोपी बनाया था। आठ साल हो चुके हैं, पर केस का कोई अंतिम नतीजा सामने नहीं आया। 2022 का सोनाली हत्या कांड भी तीन साल बाद अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि हत्या क्यों हुई। इसी तरह प्रेम विवाह पर युवक की हत्या का केस 2015 से कोर्ट में चल रहा है और आठ साल बाद भी फैसला नहीं आया।

इन उदाहरणों से साफ है कि राक्षस को केश में शामिल करना न्याय का पर्याय नहीं है। कई बार तो ये केसन को और ज्यादा वजन दे देता है। न्याय में विलंबित परिवार में केवल कानूनी प्रभाव नहीं है, यह सीधे-सीधे पीड़ित पर मानसिक, सामाजिक और आर्थिक दबाव डालता है। हर सुनवाई पर परिवार के सदस्य अपेक्षित लेकर कोर्ट जाते हैं। उन्हें लगता है कि आज कोई ठोस कदम उठेगा। लेकिन-बारबार अगली तारीख़ है। यह फ़िल्में महीनों तक नहीं, बल्कि सालों तक रहती हैं। ऐसे में पीड़ित परिवार की मौत हो जाती है। कई बार गवाह हैं कि समय के साथ ख़राब हो जाते हैं या डर के कारण पलट जाते हैं। साक्ष्य समय बताने के साथ-साथ खराब हो जाते हैं। आमबाधित्र समाज में ये लोग रहते हैं और पीड़ित परिवार के बारे में सोचा जाता है कि कानून ने अंतिम संस्कार कर दिया है।

देरी की जिम्मेदारी किसकी है? पुलिस की जिम्मेदारी है कि फरार आरोपियों को पकड़कर कोर्ट के सामने पेश करे। लेकिन कई मामलों में आरोपी वर्षों तक फरार रहते हैं और पुलिस केवल बयान देती रह जाती है। सीबीआई और अन्य जांच एजेंसियां अक्सर केस की जांच लंबी खींच देती हैं। रिपोर्ट्स तैयार करने में वर्षों लग जाते हैं और कभी-कभी राजनीतिक दबाव भी जांच की दिशा बदल देता है। न्यायपालिका में केसों की संख्या इतनी अधिक है कि हर सुनवाई महीनों बाद मिलती है। ट्रायल की प्रक्रिया धीमी है, और फैसला आने में दशकों लग जाते हैं। सरकार की भी जिम्मेदारी है। क्योंकि अगर न्यायिक ढांचे को पर्याप्त संसाधन और आधुनिक तकनीक नहीं दी जाएगी तो देरी होना तय है।

जब अपराधी खुले आम और पीड़ित परिवार अदालतों के चक्कर लगाते रहते हैं, तो समाज का विश्वसनीय कानून फिर से सामने आता है। लोग धीरे-धीरे यह तर्क देते हैं कि न्याय मिल ही नहीं सकता। कुछ मामलों में परिवार या समाज में खुद को बदलने की कोशिश की जाती है। यह क्रांतिकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है, क्योंकि न्याय व्यवस्था पर विश्वास उठना, अराजकता की शुरुआत है।

अगर हम वास्तव में यह चाहते हैं कि मनीषा और उसके जैसी बेटियों को न्याय मिले, तो इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे। जघन्य अपराधों के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं ताकि सुनवाई समयबद्ध हो। सीबीआई जांच के लिए समयसीमा तय की जाए। केस सौंपते समय यह सुनिश्चित हो कि छह महीने या एक साल में रिपोर्ट आनी ही चाहिए। फरार आरोपियों को पकड़ने के लिए विशेष टास्क फोर्स बनाई जाए। हर छह महीने में पीड़ित परिवार को केस की स्थिति बताई जाए। अदालतों और जांच एजेंसियों में डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम हो ताकि देरी का कारण साफ़ दिखाई दे। गवाह संरक्षण योजना को सख्ती से लागू किया जाए ताकि गवाह डर के कारण पलट न सकें।

मनीषा की हत्या कोई साधारण अपराध नहीं है। यह हमारे समाज की उस विफलता की कहानी है जहां बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और अगर उनके साथ कुछ भी हो जाए तो न्याय में वर्षों लग जाते हैं। मनीषा का परिवार आज भी आशावादी है। लेकिन उनकी आशा अंतिम रूप से साकार होगी जब तक यह केस समय पर न हो। यदि यह अन्य मामलों की तरह वर्षों तक खान है, तो समाज का विश्वास और विश्वास हो जाएगा।

न्याय में देरी का मतलब है न्याय से इनकार। जब आरोपी सालों तक सज़ा से बच जाते हैं, तो यह संदेश जाता है कि कानून शक्तिशाली के लिए ढीला और कमजोर के लिए सख्त है। मनीषा और उससे पहले की कई बेटियाँ आज भी इंसाफ़ की आस लगाए बैठी हैं। उनकी आंखों से टपकता दर्द हम सबकी सामूहिक नाकामी है। अब समय आ गया है कि सरकार, न्यायपालिका और जांच एजेंसियां मिलकर यह सुनिश्चित करें कि न्याय केवल मिलेगा ही नहीं, बल्कि समय पर मिलेगा।

डॉ सत्यवान सौरभ
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,333,परी वाटिका,कौशल्या भवन,बड़वा (सिवनी)सांधर,हरियाणा – 127045

Jarnail
Author: Jarnail

Jarnail Singh 9138203233 editor.gajabharyananews@gmail.com

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